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Ramkrishna Sameriya

आओ थोड़े से पागल हम भी हो जाएँ


“मैं उलटी खोपड़ी का हूँ. पागल हूँ. पागल ही ऐसे काम करता है. मुझे ही नए-नए आईडिया क्यों आते हैं क्योंकि मैं उन पर काम करता हूँ. एक घर में दो बच्चे. कोई काम होता है तो बाप उसी बच्चे को ही बुलाता है, जो उसकी सुनता है. उसे पता है दूसरा बच्चा उसकी सुनता नहीं है. मैं भी भगवान का बच्चा हूँ. वह मुझे नए-नए आईडिया देता है. मैं उसे पर काम करता हूँ. हम तो माध्यम हैं कराता तो वही है”

अर्जुन भाई जब यह कहकर चुप हो जाते हैं तो कुछ देर के लिए माहौल में शांति छा जाती है. सोचता हूँ. क्या कहूँ. चुप्पी वे ही तोड़ते हैं, “अब देख कितने लोग रोज मरते हैं और उनकी अंतिम क्रिया में भी बहुत सारे लोग जाते हैं लेकिन क्या किसी के दिमाग में आईडिया आया कि दाह संस्कार में कम लकड़ी का इस्तेमाल करने से कितनी लकड़ी बच सकती है. लकड़ी बचेगी तो जंगल बचेंगे. और जगल बचेंगे तो हम बचेंगे. यह धरती बचेगी.”

“अगर मैं जंगल लगा नहीं सकता तो मैं कम से कम एक व्यक्ति के तौर पर उन्हें बचाने की कोशिश कर सकता हूँ. मेरा नया आईडिया यही करेगा.” उनका इशारा बायोमास आधारित एन्वायरमेंट फ्रेंडली शवदाह गृह की तरफ था जिसे उन्होंने लगभग 3 सालों की लगातार मेहनत से तैयार किया है.

वे बताते हैं कि अंतिम संस्कार करने के लिए औसतन 400 किलोग्राम लकड़ी लगती है. इस प्रकार हमारे देश में हर साल लाखों टन लकड़ियां जलती हैं. उनके बनाए गए शवदाह गृह से 70-80 किलोग्राम लकड़ी लगेगी. उन्होंने दावा किया कि इस शवदाह गृह का इस्तेमाल करने से रोज कम से कम 40 एकड़ जंगल बचा सकते हैं.

यही कारण है कि उनके शवदाह गृह को प्रमोट करने के लिए गुजरात एनर्जी डेवलपमेंट एजेंसी ने फंड भी किया है.

ऐसे आया आईडिया

42 साल पहले, गुजरात स्थित जूनागढ़ जिले के केशोद गाँव के अर्जुन पगधार अपने एक रिश्तेदार के अंतिम संस्कार में गए थे. तब वे 14 साल के थे. उन्होंने देखा कि अंतिम संस्कार करने के लिए 400 किलोग्राम से ज्यादा लकड़ियों का इस्तेमाल किया गया. उन्होंने सोचा कि क्या इसे कम नहीं किया जा सकता.

अब अर्जुन 56 साल के हो गए हैं. समय के साथ जिंदगी की उलझनों में वे उलझ गए. लेकिन कम लकड़ी में शवदाह कैसे हो इसके बारे लगातार सोचते रहते थे. फिर एक दिन दोनों हथेलियों को जोड़कर चुल्लू बनाकर वे नल से पानी पी रहे थे तभी उनके दिमाग में आईडिया आया की शवदाह गृह कुछ इसी तरह ममी के आकर का होना चाहिए. पैसे की कमी के बावजूद उन्होंने प्रोटोटाइप तैयार किया और पहली बार इसका इस्तेमाल जूनागढ़ के शवदाह गृह में किया गया. इसके लिए तत्कालीन जूनागढ़ कमिश्नर विजय राजपूत ने पूरी मदद की.

कम लकड़ी, कम समय में ऐसे होता है शव दाह

इसमें ईटों को ममी की डिजाईन में लगाया गया है. लोहे से बने ऊपरी कवर का अंदरूनी हिस्सा केरा-वूल से भरा हुआ है जो ज्यादा तापमान को बर्दाश्त कर सकता है. इसमें ब्लोअर और नॉजेल भी दिए गए हैं ताकि अंतिम संस्कार के दौरान हवा अन्दर और बाहर जा सके. हिन्दू रिति रिवाजों को ध्यान में रखते हुए दो दरवाजों का इस्तेमाल किया है. एक मुख्य द्वार पर होगा और दूसरा अंतिम द्वार पर. अंतिम संस्कार करने संबंधी इन नई प्रक्रिया में एक सेंसर आधारित टंपरेचर मीटर भी है जिससे लोगों को अंदर के तापमान का पता चल सकेगा. एयर फिल्टरेशन के लिए चारकोल और कॉस्टिक सोडा के फिल्टर्स भी दिए गए हैं. 80 किलोग्राम के शव को दाह होने में 70-80 किलोग्राम लकड़ी लगती है. समय एक से डेढ़ घंटा ही लगता है.

शहरों में लकड़ी के अलावा इलेक्ट्रिक और गैस आधारित शवदाह गृह इस्तेमाल हो रहे हैं, लेकिन गांवों में अंतिम संस्कार के लिए लकड़ियों का ही उपयोग होता है.

अवार्ड

उन्हें 10वें नेशनल ग्रासरूट्स इनोवेशन एंड आउटस्टैंडिंग ट्रैडिशनल नॉलेज अवार्ड्स 2019 से नवाजा गया है. राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द ने 14 मार्च को अमरापुर में इनोवेशन फेस्टिवल का उद्घाटन किया था.

अनिल गुप्ता, सृष्टि, हनी बी नेटवर्क

अर्जुन भाई सृष्टि और हनी बी नेटवर्क की संस्थापक प्रोफेसर अनिल गुप्ता को अपना गुरु मानते हैं. अनिल गुप्ता का टेड विडियो देखें. लिंक है TED TALK .सृष्टि (sristi.org) अहमदाबाद स्थित स्वयसेवी संस्था है. यह संस्था शोध यात्रा के माध्यम से जमीनी स्तर पर नवाचार (इनोवेशन) और परंपरागत ज्ञान की खोज करती है उन्हें प्रोत्साहित करती है.

पैसा नहीं मिला, लेकिन नाम हो गया

2007 में फ्लाई ऐश से ईट बनाने की मशीन 15 लाख में खरीदी. लेकिन इसमें बहुत ज्यादा परेशानी आने लगी. मशीन की सर्विस नहीं मिलने से वे खुद ही मशीन को सुधारने लगे. अर्जुन भाई को लगा की यह मशीन वे बहुत कम लागत में बना सकते हैं. उन्होंने ऐसा किया भी. 2010 में पहली बार उन्होंने फ्लाई ऐश से ईट बनाने की मशीन बनाई. इसमें बहुत घाटा हुआ. लेकिन सीखने को बहुत मिला. १२ वीं फैल अर्जुन भाई की एक तरह से मैकेनिकल इंजीनियरिंग की पढ़ाई हो गई. लेकिन मार्केटिंग नहीं कर पाने के कारण वे इस बेच नहीं पाए. केवल एक मशीन लागत मूल्य पर रिश्तेदार को बेच सके.

अब उनके दिमाग में गोबर से ईट बनाने का आईडिया आया. पर्यावरण संरक्षण के प्रति संवेदनशील होने और वेस्ट से बेस्ट बनाने का आईडिया था. यह प्रोजेक्ट आर्थिक रूप से असफल रहा. पैसा नहीं मिला लेकिन नाम हो गया. गोबर से ईट बनाने की मशीन के लिए उन्हें 2015 में तत्कालीन राष्ट्रपति द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर ग्रासरूट इनोवेटर अवार्ड से सम्मानित किया गया. नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन द्वारा स्थापित यह अवार्ड हर साल जमीनी स्तर पर नवाचार के लिए दिया जाता है.

अर्जुन भाई हर साल पंक्षियों के लिए वेस्ट प्लास्टिक बोतल और प्लेट का उपयोग करके से मोबाइल चबूतरा (बर्ड फीडर ) बनाकर निशुल्क भी बांटते हैं. वे स्वयं किसान भी हैं और गाय आधारित खेती करके जैविक हल्दी और मिर्च की खेती करते हैं.

इनोवेटर इनोवेशन करता है. इनोवेशन की मार्केटिंग नहीं कर सकता. एक अच्छे आईडिया को बड़े स्तर पर आर्थिक रूप से सफल बनाने के अच्छी मार्केटिंग और फाइनेंस की भी जरूरत होती है. इनमें से किसी की भी कमी होने के कारण वह आगे नहीं बढ़ पाता. अर्जुन भाई के साथ भी हर बार यही हुआ. हम उम्मीद करते हैं कि इस बार ऐसा नहीं होगा.

यदि आप अर्जुन भाई की मदद करना चाहते हैं तो मोबाइल नंबर 8780690193 पर संपर्क करें.

क्या सीख सकते हैं अर्जुन भाई से

  1. अपनी सहज बुद्धि (institution) का उपयोग करें

  2. असफल होकर बैठे नहीं, प्रयास करते रहें.


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